घिरे गगन में बादल
फिर से
रस के कलश झरे।
पास आ गये हो
उतने ही
जितने दूर गए
कौन घड़ी में
जाने कैसे
मनके तार छुये
सूरज गया
मगर सन्ध्या के
कुंकुम रचे कपोल
रात-रात भर
रही चाँदनी
सपनों में रस घोल
आसमान जी भरकर नाचा
सौ-सौ दीप धरे।
चट्टानों में फटी दरारें
दूबा उग आई
सूखी हुई डाल पर
फिर से
चिड़िया चहचाई
कँपते हुये हाथ में कोई
कलम धर गया है
खँडहर के माथे पर भरकर
कलश धर गया है
ओठों पर अधराये सुधि के
नयना भरे-भरे!
वन्दन वारें
आगन्तुक का
पूछ रही हैं परिचय
अब तो होता नहीं झूठ का
बार-बार यह अभिनय
आना ही है तो जाने का
फिर से हो न महूरत
तन से, मन से, इन प्राणों से
कर न सकेंगे रुख्सत
ताक रहे हैं जल-धारें भी
हिरना डरे-डरे।