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हिरनी फेंके ख़ून / उमाकांत मालवीय

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हिरनी फेंके ख़ून
दसतपा आग न बरसा रे ।

दुबके हुए मेमने बैठे
हाँफ रहे खरगोश
हरियाली का पता नहीं
जा बैठी काले कोस

हन हन पड़ती किरन
कि जैसे बरछी फरसा रे ।

प्यास डोलती दर-दर
पानी ने पाया बनवास
अपनी प्यास पिए चल रे मन !
छाँड़ बिरानी आस

रस्ता बिसर गए क्या बादल ?
बीते अरसा रे  !

दुपहरिया भर लू ठनके
नाचै अगिया बैताल
एक बेहया.झोंका
नंगी टहनी गया उछाल

उघरे कूल पुकारें
नदिया और न तरसा रे ।