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हिलती हुई पृथ्वी / संजय कुमार शांडिल्य

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कुछ थोड़े से लोग हमेशा टापुओं पर रहते हैं
तो मैं रोज़ोशब खुले समुद्र में रहता हूँ

मुझे हरबार लहरें दूर, बहुत दूर
लाकर पटक देती हैं
इतनी दूर कि मेरे देश का नौ क्षेत्र
मुझे दिखाई नहीं देता

एक बड़े झंझावात में इस दुनिया की छत
उड़ रही होती है
और हिमालय और आल्पस जैसे पहाड़
भसकते हुए अपने मलबे के साथ
मेरी ओर लुढ़कते हैं

कुछ थोड़े से लोग तब पबों में जाम टकराते
हुए मेरी इस बेबसी पर हँसते हैं
मुझे इस मृत्यु की नींद में उनके ठहाके
सुनाई पड़ते हैं

मैं जब एक दूब की तरह सिर उठाता हूँ
अपने ऊपर के आसमान से मेरा सिर लगता है

कुछ थोड़े से लोग अन्तरिक्ष से खेलते हैं
और मेरी पृथ्वी रोज़ हिलती है ।