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हिलेंगे पत्ते / गुलाब सिंह
Kavita Kosh से
गईं सदियाँ
जब न हिलते थे
आ गए पल
हिलेंगे पत्ते।
फूल-फल दे
चुप रहेंगे पेड़
भीड़ की खामोश-
चालें भेंड,
अब नहीं होगा
न होंगे दिन निहत्थे।
झूठ पर सच की
चढ़ी खोलें
खुला जोखिम
सँभल कर बोलें
ढकेगी लकदक
कहाँ तक खून-कत्थे?
लिखेगा इतिहास
संसद में
आप सब कितने-
प्रियंवद थे,
मधुर अपने हाथ
कड़ुवा और के मत्थे
देख कर कटते-
सिरों के खेल
हरी है कुर्बानियों
की बेल-
देश हैं हम
राम-राधू नहुष-नत्थे
आ गए दिन
हिलेंगे पत्ते!