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हिल रहीं नीवें / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
और ऊँची...
और ऊँची मत करो मीनार अपनी
सुनो, धरती की पकड़ से
दूर होते जाओगे तुम
और अपनी जड़ों से
पहचान खोते जाओगे तुम
वहाँ ऊपर
सह न पाओगे अकेले हार अपनी
हिल रहीं नीवें
कहीं मीनार नीचे आ न जाए
कहीं पिछला उम्र-भर का पाप
तुमको खा न जाए
उधर देखो
रोकने को है नदी भी धार अपनी
कहीं तो रोको उठानें
वक़्त का भी क्या भरोसा
कहीं उलटा हो न जाए
भाग्य जिसने तुम्हें पोसा
मत उठाओ
चाँद-तारों तक नई दीवार अपनी