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हिसाब / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
ब्लेड से पेंसिल छीलते हुए
एक पूर्ण-विराम-भर कट सकती है उँगली
लेकिन अश्लील होता
बिल्कुल सफ़ेद काग़ज़ पर गिरना
अनुस्वार-भर भी
रक्त की बूँद का ।
नहीं आ पाई थी कोई भी ऐसी बात
कि उँगली से ही लिख दी जाती--
लाल अक्षरों में
उत्तापहीन हो चला था इतिहास
सिर्फ़ हवाओं की साँय-साँय सुनाई देती थी
कविताओं के खोखल से
सिर्फ़ प्रेम ही लिख देने भर भी
उष्म नहीं बचे थे हृदय, तब
प्रेमपत्रों को कौन पढ़ता ?
बचती थी केवल प्रतीक्षा ज़ख़्म सूखने की
कि पेंसिल छीलकर लिखा जा सके--
हिसाब ।