हिसार के सभी निज़ाम गर्द गर्द हो गए
हम अपने अपने जिस्म में ख़ला-नवर्द हो गए
रवानियाँ सिफ़र हुईं मसाफ़तें खंडर हुईं
नजात के तमाम शाहकार सर्द हो गए
हवा-ए-जाँ का क्या मियाँ उठा गई उड़ा गई
जमे न थे बदन में हम कि फिर से गर्द हो गए
इबारतों में आ बसी अजबी रूत सुकूत की
क़लम की शाख़ के तमाम बर्ग ज़र्द हो गए
न पूछ हम से क्या हुआ हयात का ‘रियाज़’ का
दवाम छू गया उन्हें तो कर्द कर्द हो गए