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हिस्से का अपने कर्ज़ चुकाकर निकल गया / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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हिस्से का अपने कर्ज़ चुकाकर निकल गया।
दीवार बन्दिशों की गिराकर निकल गया।
तकलीफ उसको इक न परेशान कर सकी,
हर दर्द चुटकियों में उड़ाकर निकल गया।
जब हाट में ज़मीर लगे लोग बेचने,
साबुत ज़मीर अपना बचाकर निकल गया।
साजिश खिलाफ मुल्क के होने कभी न दी,
पहला है अपना फ़र्ज़ सिखाकर निकल गया।
चाहा पिला शराब उसे जीत लें मगर,
वो उँगलियों में जाम नचाकर निकल गया।
साकी शऊर भूल गई मैकदे में जब,
वो जेरे लब हँसी को दबाकर निकल गया।
आयेगा अब न चैन रकीबों को उम्र भर,
‘विश्वास’ वह कमाल दिखाकर निकल गया।