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हीरसँ / हरेकृष्ण झा

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कहकह आगिक रसोंमे पागल
गुलकंद
गुड़कैत रहल
ओहि डिब्बाक
यात्री सभक खूनमे।

सितलहरीक राति:
कठुआ क’ शरण
लेम’ चाहैत छल अंग-अंग
अपन प्राणक
बचल-खुचल ऊष्मामे:
आर कोनो ठहार नहि।

आ राति भरि गबैत रहल
राम-जानकी विवाहक गीत
रामनामी सभक एकटा गोल
हलफी काटक लेल।

की सँ की युक्ति
बहराइत छैक
मनुक्खक भीतर
जीवनक हीरसँ:
हेमाल होइत
साँस सँ बना लेत ओकरा
अपना भीतर जोगाओल
आदिम आगिक रासेंमे !