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हुआ तू ख़ुसरव-ए-आलम सजन! शीरीं मक़ाली में / वली दक्कनी

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हुआ तू ख़ुसरव-ए-आलम सजन! शीरीं मक़ाली में
आयाँ हैं बद्र के मा'नी तेरी साहब-कमाली में

जो कैफि़यत सियहमस्‍ती की तुझ अँखियाँ में है ज़ालिम
नहीं वो रंग वो मस्‍ती शराब-ए-पुर्तग़ाली में

तिरी ज़ुल्‍फ़ों के हल्‍कें में है यूँ नक़्श-ए-रूख़-ए-रौशन
कि जैसे हिंद के भीतर लगें दीवे दिवाली में

अगरचे हर सुख़न तेरा है आब-ए-खि़ज़्र सूँ शीरीं
वले ल़ज्‍ज़त निराली है पिया तुझ लब की गली में

कहो उस नूर चश्‍म-ओ-पिस्‍ता लब कूँ आशनाई सूँ
कि ज्‍यूँ बादाम के दो म़ग्‍ज़ होवें यक निहाली में

नज़र में नईं है मर्दों की सलाबत अहल-ए-ज़ीनत की
नहीं देखा कोई रंग-ए-शुजाअत शेर-ए-क़ाली में

'वली' के हर सुख़न का वो हुआ है मू-ब-मू ख़्वाहाँ
जो कुई पाया है लज़्ज़त तझ भवाँ के शे'र-ए-हाली में