शिफ्ट-शिफ्ट की सर्विस अपनी, हुआ मशीनी जीवन।
भौतिकता का तानाबाना, थका-थका अपना मन।
अभिलाषाएँ नभचुंबी हैं, इच्छाएँ हैं दुर्दम,
और-और का रोग लगा है, जो है सो काफी कम।
महल-अंटारी दे दो जितना नहीं तुष्ट हैं परिजन।
हुई पढ़ाई महंगी इतनी, बड़ी कमाई कम है,
बच्चों की इच्छापूर्ति में निकल रहा अब दम है।
रोज-रोज का ड्रेस चेंज यह क्या कम है उत्पीड़न।
अस्पताल का चक्कर ऐसा, पैसे सारे कम हैं।
जांच-दवा के तंत्र-जाल में, हम तो अब बेदम हैं।
लाइलाज रोगों से जर्जर तन का नित छीजन है।
'सुखदायक संतोष परम' का अरे जमाना बीता।
जितना पानी भरो घड़ा में वह रीता-का-रीता।
यह विकास का नया नमूना बांट रहा उद्दीपन।
अपना नहीं बचा इसमें कुछ, नहीं मौज, ना मस्ती,
अधकचरा जीवन यह अपना, ना शहरी ना बस्ती।
खटते-खटते मर जायेंगे, चुक जायेंगे ईंधन!