भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हुआ ये क्या कि ख़ामोशी भी गुनगुनाने लगी / शहरयार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हुआ ये क्या कि ख़मोशी भी गुनगुनाने लगी
गई रुतों की हर इक बात याद आने लगी

ज़मीने-दिल पे कई नूर के मीनारे थे
ख़याल आया किसी का तो धुंध छाने लगी

ख़बर ये जबसे पढ़ी है, ख़ुशी का हाल न पूछ
सियाह-रात!  तुझे रौशनी सताने लगी

दिलों में लोगों के हमदर्दियाँ हैं मेरे लिए
मैं आज ख़ुश हूँ कि मेहनत मेरी ठिकाने लगी

बुरा कहो कि भला समझो ये हक़ीक़त है
जो बात पहले रुलाती थी अब हँसाने लगी