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हुआ है मेहरबाँ वो मू-कमर आहिस्ता आहिस्ता / 'सिराज' औरंगाबादी
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हुआ है मेहरबाँ वो मू-कमर आहिस्ता आहिस्ता
क्या मुझ आह ने शायद असर आहिस्ता आहिस्ता
किया है मुस्कुरा कर बात मिस्ल-ए-फूल गुल-रू ने
निहाल-ए-इश्क़ ने लाया समर आहिस्ता आहिस्ता
पिला कर जाम अपनी चश्म की गर्दिश सीं पै-दर-पै
किया साक़ी ने मुझ कूँ बे-ख़बर आहिस्ता आहिस्ता
तुफ़ैल-ए-सोज़िश-ए-दिल मंज़िल-ए-जानाँ कूँ पहुँचा हूँ
हुई है आह मेरी राह-बर आहिस्ता आहिस्ता
गली में उस परी-रू की किया है अज़्म उड़ने का
निकाला मुर्ग़-ए-दिल ने बाल-ओ-पर आहिस्ता आहिस्ता
मिरे हाल-ए-परेशां की हक़ीक़त कूँ सुना जा कर
सबा कूचे में गुल-रू के गुज़र आहिस्ता आहिस्ता
‘सिराज’ उस शोख़ ने दर-पोश लाया मद्द-ए-आबरू कूँ
मिरा दिल क्यूँ न होए ज़ेर-ओ-ज़बर आहिस्ता आहिस्ता