भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हुआ है रश्क चम्पे की कली कूँ / वली दक्कनी
Kavita Kosh से
हुआ है रश्क चम्पे की कली कूँ
नज़र कर तुझ क़बा-ए-संदली कूँ
करे फिऱदौस इस्तक़बाल उसका
तसव्वुर जो किया तेरी गली कूँ
हमारी आह-ए-आतिश रंग सुनकर
हुई है बेक़रारी बीजली कूँ
तिरे ग़म में दिल-ए-सूराख़-सूराख़
किया पैदा सदा-ए-बाँसली कूँ
दिल-ए-पुर ख़ूँ ने मेरे बाग़ में जा
दिया तालीम-ए-ख़ूँख़्वारी कली कूँ
किया है आब-ए-ख़जलत सूँ सरापा
हर इक मिसरा सूँ मिस्त्री की डली कूँ
पड़े सुनकर उछल ज्यूँ मिसर-ए-बर्क़
अगर मिसरा लिखूँ 'नासिर अली' कूँ
तिरे अशआर ऐसे नहीं 'फ़राक़ी'
कि जिस पर रश्क आवेगा 'वली' कूँ