हुई छट्टियाँ / रमेश तैलंग
हुई छुट्टियाँ अब पहाड़ों पे जाएँ
झरनों की कल-कल के संग गुनगुनाएँ।
धरती को छाया दिये जो खड़ा है
चलो, उस गगन से निगाहें मिलाएँ।
अभी तक पढ़ाई ने था हमको मारा,
रटते सबक दिन गुजरता था सारा,
न पलभर की फुरसत कभी खेलने की
बुरा हाल सचमुच हुआ था हमारा,
मगर मौज है अब जहाँ चाहे घूमें
किरन बनके हम हर तरफ झिलमिलाएँ।
घने ऊँचे पेड़ांे की लंबी कतारें,
फूलों की खुशबू में भीगी बहारें,
बुलाती हैं फिर हमको फैला के बाँहें,
चलो, आज हम इनका घूँघट उतारें,
कदम-दर-कदम उस क्षितिज तक चलें हम
गले मिल रही हैं जहाँ पर हवाएँ।
न मम्मी की गिटपिट, न पापा का डर हो,
अकेले हों हम और सुहाना सफर हो,
न बंधन में बाँधे हमें आज कोई
खुला आसमाँ बस इधर हो-उधर हो,
जुडे़ं पंक्तियों में, उड़े पंछियों से
दिशाओं पे लिख दें हम अपनी कथाएँ।