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हुई शायद कोई अनबन परों से / सूरज राय 'सूरज'

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हुई शायद कोई अनबन परों से।
फ़लक सूना पड़ा है पंछियों से॥

बिदाई कोख़ से बिटिया की कैसी
कि ख़ूं छलके है माँ की छातियों से॥

पलक झपकी हैं कितनी बार आँखें
कभी भी पूछ लेना पुतलियों से॥

सड़क पर क़त्ल इक छत का हुआ है
न झाँकी एक भी खिड़की घरों से॥

अरे किस्मत के सन्नाटों बता दो
भला बतियाऊँ कब तक झींगुरों से॥

कोई नक़्शा तुम्ही घर का बना दो
कहाँ तक मशविरें लूँ मकड़ियों से॥

हवा महफ़ूज़ है गाँव में मेरे
धुआँ आता नहीं है चिमनियों से॥

वजूदे-गाँठ में है कौन मुजरिम
चलो पूछें ज़रा दोनों सिरों से॥

मैं "सूरज" हूँ कोई दीपक नहीं हूँ
मिला लो हाथ जितना आँधियों से॥