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हुए चीड़-से / विनोद श्रीवास्तव

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हुए चीड़-से
दर्द बिचारे
आँसू नदी हुए
अंजुरी भर हैं
पर्व हमारे
रोते सदी हुए

पोर-पोर
बस पीड़ाएं हैं
क्षण-प्रतिक्षण
टूटन
हंसने में भी
सीमाएं हैं
सुविधाएं
जूठन

कंधे
कर्ज
उठाते फिरते
पत्थर
पांव हुए
अधरों पर
अंगारे गिरते
बंजर
गाँव हुए

कांप रही हैं
छत, दीवारें
आंगन हैं ख़ामोश
उस घर से
आतीं झंकारें
इस घर में
अफ़सोस

शिरा-शिरा में
जहर भरा है
काले पहर हुए
हर कोई
बेमौत मरा है
खाली शहर हुए