भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हुए पार द्वार-द्वार / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हुए पार द्वार-द्वार,
कहीं मिला नहीं तार।

विश्व के समाराधन
हंसे देखकर उस क्षण,
चेतन जनगण अचेत
समझे क्या जीत हार?

कांटों से विक्षत पद,
सभी लोग अवशम्बद,
सूख गया जैसे नद
सुफलभार सुजलधार।

केवल है जन्तु-कवल
गई तन्तु नवल-धवल,
छुटा छोर का सम्बल,
टूटा उर-सुघर हार।