भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हुक़ूमतें बदल गईं उसी का यह कमाल है / मधुभूषण शर्मा 'मधुर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

           हुक़ूमतें बदल गईं उसी का यह कमाल है
           जो कल तलक जवाब था वो बन चुका सवाल है
         
           बना हुआ है कुछ चतुर जनों का इक समूह-सा
           ज़रूरतों को आज की रहा जो कल पे टाल है

           निरीह लोग पक्षियों-से बस हैं फड़फड़ा रहे
           बिछा हुआ शिकारियों का इस तरह का जाल है

           न कर सके किसी की कोई अब यहां सहायता
           हवा में ज़हर यूं घुला कि सांस तक मुहाल है

          गली-गली सड़क-सड़क पे लाश है घिसट रही
          है मांगता बदन कफ़न , कफ़न पे भी बवाल है

          गले में चीख़ घुट गई लबों पे बात रुक गई
          समझ नहीं ये आ रहा कि श्वास है या काल है

          अदालतें वकालतें नुमाइशें लगें न क्यूं
          जब आस्तीं में सांप ही रहा विधान पाल है

          जहाँ निजी हितों का बोझ राजनीति ढो रही
          'मधुर' वहाँ न देश का रहे ज़रा ख़याल है