हुक्कावदन पेटूलाल, रिहाइश नैनीताल
मुखड़े पर बारह बजा हाल में,
बारा बजे के माने, ठीक-ठाक जो जाने,
संगी नहीं ऐसा नैनीताल में।
उसका मामा बंसीधर, नारकोटिक ऑफ़िसर
और उसका कोई नहीं अपना,
इसी से क्या पेटू का, मुँह देखूँ लटका
हँसी तो हो गई अब सपना।
नाचता था पहले, हाथी-जैसे पाँव ले
विकसित - फुल्लित आनन,
सरे राह गाता था, सा रे ग म प नि धा
पुलकित तन, आनन्द मन।
अब भरी दोपहर, पेड़ पर बैठकर
चुपचाप देखा करे आसमान,
इस बीच हुआ क्या? मामा उसका मुआ क्या?
या कि कहीं टूट गई टाँग-वाँग?
पूछा तो हुक्कावदन, हुआ ज़रा अप्रसन्न
"ऐसी-वैसी बातें क्या मैं गिनता?
व्यस्त रहूँ जित्ता भी, मक्खी मारूँ कित्ता भी
मन में फँसी रहे एक चिन्ता।
लिखा है मोटे हरफ़, मक्खी हो दाईं तरफ़
दाएँ पूँछ फटकार मार दो,
बाईं ओर बैठ गई, तो भी कोई बात नहीं
बाएँ फटकारो पूँछ, झाड़ दो।
पर कोई मूज़ी मक्खी, बैठ जाए बीच पक्की
क्याs करो तब ये पता नहीं,
ऐसा यदि घटता है, क्या कोई रस्ता है?
सोच रहा हूँ प' सूझता नहीं।"
सुकुमार राय की कविता : हूँकामुखो हेंग्ला (হুঁকামুখো হ্যাঙ্লা) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित