हुक्का / नज़ीर अकबराबादी
जब से हुक़्क़ा तुझ लबेजांबख़्श<ref>होंठों को जीवन देने वाला</ref> का हमराज है।
तब से हक़ हक़ क्या कि कै़ कै़ की सी कुछ आवाज है।
यह जो उड़ता है धुआं अब तेरे मंुह से ऐ परी।
इस धुऐं बालानसब<ref>उच्चकुल</ref> की अर्श तक परवाज<ref>उड़ान</ref> है।
पेचवाँ पीने में किस किस आन का खुलता है पेच।
गुड़गड़ी पीने में काफ़िर और ही अन्दाज़ है।
पेचवां को अपने पेचों पर नहीं इतना ग़ुरूर<ref>गर्व</ref>।
जितना तेरी गुडगड़ी को डेढ़ ख़म पर नाज़ है।
दिल जलाने को तो अभी आशिके़ जां बाज़ है।
आब ने हुक़्के़ तवे नैचे को यह रुतवा कहां॥
मंुह से लगने में तो अब मनहाल भी मुमताज़<ref>सम्मानित</ref> है।
गर तुझे होना है गुल ऐ दिल तो जल और दम न मार॥
देख तम्बाकू को क्या क्या सोज़<ref>जलन</ref> है और साज़ है।
गुल किया दम भर में तम्बाकू जलाकर आग में॥
ऐ परी रो तेे दम में तो यह कुछ ग़म्माज़ है।
है कहां टुक बोल उठ जल्दी खु़दा के वास्ते॥
ओ मियां हुक़्के़ अ़जब प्यारी तेरी आवाज़ है।
क्यों न तुझको मुंह लगावें ख़ल्क़ में शाहो गदा॥
तू तो परियों के लबों का हमदमो हमराज़ है।
पेचवाँ पर पेच खाती है पड़ी हूरों की जुल्फ॥
गुड़गुड़ी एक दमड़ी की महकिया को रहे आजिज़ सदा।
हमको क्या क्या गुड़गुड़ी और पेचवां पर नाज़ है॥
ग़ौर कर देखा तो अब यह वह मसल है ऐ नज़ीर।
बाप ने पिदड़ी न मारी बेटा तीरन्दाज़ है॥