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हुच्चोॅ बन्द करोॅ / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो

बदली गेलै सरकार कहै छोॅ क्रान्ति भेलै
हँस्सी आबै छेॅ तोरोॅ लेखा-जोखा पर।
साबित छै सब सहचार कहै छोॅ क्रान्ति भेलै
अतरज लागै छेॅ तोरोॅ अजगुत धोखा पर।

खेतोॅ में वहेॅ मजूर खटै जी-जानोॅ सें
पानी सें पेट पटाय दिलाशा देॅ देॅ केॅ
द्वारौ पर छै दिन-रात चौकड़ी तासोॅ के
पड़लोॅ छै सब टा युवक निराशा लेॅ लेॅ केॅ
सांढोॅ़ के गोबर रं बेकाम बनैनै छै
कंचन रं काया नै चिपड़ी नै चौंका पर।

भावना वहेॅ छै अब तक कोट-कचहरी में
सन सत्तर सगरो अबतक धरम-इमनोॅ के
कुछ नेता निर्भय हुअेॅ समाजोॅ के लेकिन
मानवताँ हरदम घूँट पियै अपमानोॅ के।

भीतर-भीतर घुन छै समाज के छाती में
ऊपर के चमड़ी तेलोॅ सें चिकनैने छोॅ
सच-सच बोलोॅ तेॅ, बोलै के अधिकारी छोॅ
नारा छोड़ो अबतक तेाहें की पैने छोॅ!

नारा के रथ पर क्रान्ति पधारै छै, लेकिन
कहबोॅ नारा केॅ क्रान्ति मखौल उड़ाना छै
मंजिल के चित्र उतरल्हौं आँखी में तें की
मंजिल पाना, खाली मंजिल तक जाना छै।

तोड़ो देॅ बन्द केवाड़ सुसुप्ती के सबटा
जागृत स्वर सें सम्मिलित हाथ के ताली सें
‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ के स्वप्न उतारोॅ हाथोॅ में
चिन्तन केॅ कर्म बनाबोॅ ये खुशियाली में।
लागी गेलोॅ छौं दीक तेॅ हुच्चोॅ बन्द करोॅ
ठहरोॅ तेॅ अगुवाँ की बतलाबै छै
जे आँखी में मंजिल के स्वप्न उतरलोॅ छै
वै रथ के पहियाँ कन्नेॅ लीख बनाबै छै।

दिग्भ्रमित क्रान्ति के कोनो ठौर-ठिकानोॅ नै
ऊ महज अराजकता के एक निशानी छै
नै हुअेॅ अगर निर्माण भविष्यत् के घर तेॅ
खंडहर गिराना भी एकदम बेमानी छै!