हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुखन की आज़माइश है / ग़ालिब
हुज़ूर-ए-शाह में अहल-ए-सुखन की आज़माइश है
चमन में ख़ुष-नवायान-ए-चमन की आज़माइश है
क़द ओ गेसू में क़ैस ओ कोहकन की आज़माइश है
जहाँ हम हैं वहाँ दार-ओ-रसन की आज़माइश है
करेंगे कोहकन के हौसले का इम्तिहान आख़िर
अभी उस ख़स्ता के नेरवे तन की आज़माइश है
नसीम-ए-मिस्न को क्या पीर-ए-कनआँ की हवा-ख़्वाही
उसे यूसुफ़ की बू-ए-पैरहन की आज़माइश है
वो आया बज़्म में देखो न कहियो फिर कि ग़ाफ़िल थे
शकेब ओ सब्र-ए-अहल-अंजुमन की आज़माइश है
रहे दिल ही में तीर अच्छा जिगर के पार हो बेहतर
ग़रज़ शुस्त-ए-बुत-ए-नावक-फ़गन की आज़माइश है
नहीं कुछ सुब्हा-ओ-जुन्नार के फंदं में गीराई
वफ़ादारी में शैख़ ओ बरहमन की आज़माइश है
पड़ा रह ऐ दिल-ए-वाबस्ता बेताबी से क्या हासिल
मगर फिर ताब-ए-ज़ुल्फ़-ए-पुर-शिकन की आज़माइश है
रग ओ पै में जब उतरे ज़हर-ए-ग़म तब देखिए क्या हो
अभी तो तल्ख़ी-ए-काम-ओ-दहन की आज़माइश है
वो आवेंगे मिरे घर वादा कैसा देखना ‘गालिब’
नए फ़ित्रों में अब चर्ख़-ए-कुहना की आज़माइश है