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हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा / शाद आरफ़ी

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हुदूद-ए-अक्ल-ओ-शर्ब का सवाल ही नहीं रहा
दिलों में ख़ौफ़-ए-रब्ब-ए-ज़ुल-जलाल ही नहीं रहा

मआल-ए-अर्ज़-ए-हाल का मलाल ही नहीं रहा
वो बज़्म-ए-ग़ैर थी मुझे ख़याल ही नहीं रहा

जभी तो बाग़बाँ की गुफ़्तुगू में झोल देखते
कभी किसी तरह का एहतिमाल ही नहीं रहा

ये वसवसे की बात अपने मुँह से मत निकालिए
कोई शरीक-ए-हाल-ए-पुर-मलाल ही नहीं रहा

जलाल को भी वक़्त ने समो दिया है शेर में
ग़ज़ल का मत्मह-ए-नज़र जमाल ही नहीं रहा

तसल्लियों के ज़ैल में दिला रहे हो याद क्यूँ
तबाहियों का जब मुझे ख़याल ही नहीं रहा

मिरे बयान-ए-हाल-ए-दर्द-ए-दिल में चारा-कार ने
वो रंग भर दिया कि मेरा हाल ही नहीं रहा

जहाँ शबाब-ओ-शग़्ल-ए-मय ने खो दिए थे होश तक
मैं बिन-पिए उठा तो कुछ कमाल ही नहीं रहा

ख़ुदा-ए-कार-साज़ के करम से ‘शाद’-आरफ़ी
कभी मुझे सलीक़ा-ए-सवाल ही नहीं रहा