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हुनर-ए-ज़ख़्म-नुमाई भी नहीं / राग़िब अख़्तर
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हुनर-ए-ज़ख़्म-नुमाई भी नहीं
सिला-ए-आबला-पाई भी नहीं
दर्द-ए-सर अब तिरे होने का सबब
अब तो वो दस्त-ए-हिनाई भी नहीं
मैं ने हर रंग समेटा उस का
और तस्वीर बनाई भी नहीं
बंदगी भी न मुझे रास आई
और पिंदार-ए-ख़ुदाई भी नहीं
जल गया जिस में मिरा सारा वजूद
तू ने वो आग लगाई भी नहीं
ऐ ख़ुदा बख़्त-सिकंदर मत दे
और कश्कोल-ए-गदाई भी नहीं