भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हुस्न-ए-असनाम ब-हर-लम्हा फ़ुजूँ है कि नहीं / 'रविश' सिद्दीक़ी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हुस्न-ए-असनाम ब-हर-लम्हा फ़ुजूँ है कि नहीं
ये मिरे ज़ौक-ए-तमाशा का फ़ुसूँ है कि नहीं

कुछ तो इरशाद हो ऐ तम्किनत-ए-आन-ए-जमाल
इश्क़ शाइस्ता-ए-तहज़ीब-ए-जुनूँ है कि नहीं

ये जहान-ए-मय ओ मीना ओ सुबू ऐ वाइज़
परतव-ए-नर्गिस-ए-मस्ताना है क्यूँ है कि नहीं

शोला-ए-शम्मा से ख़ाकिस्तर-ए-परवाना तक
एक ही सिलसिला-ए-सोज़-ए-दरूँ है कि नहीं

हल्क़ा-ए-बाद-ए-सबा तजि़्करा-ए-जुल्फ़-ए-सनम
इस में कुछ शाएबा-ए-ज़ौक़-ए-जुनूँ है कि नहीं

बसते जाते हैं नगर दिल हैं तबाह ओ वीराँ
आगही दुश्मन-ए-दुनिया-ए-सुकूँ है कि नहीं

हम वो हैं आज ‘रविश’-ए-साहब-ए-दीवान-ए-ग़ज़ल
ये सब उस चश्म-ए-सुख़न-गो का फ़ुसूँ है कि नहीं