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हुस्न इर्फ़ान-ए-हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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हुस्न इर्फ़ान-ए-हक़ीक़त के सिवा कुछ भी नहीं!
इश्क़ इक हर्फ़-ए-अक़ीदत के सिवा कुछ भी नहीं!

जिसका आग़ाज़, न अन्जाम, न उन्वान कोई
ज़िन्दगी ऐसी हिकायत के सिवा कुछ भी नहीं!

लोग तो बात का अफ़्साना बना देते हैं
वरना रंजिश भी इनायत के सिवा कुछ भी नहीं!

रोज़-ओ-शब,शाम-ओ-सहर.एक ही ग़म, एक ही याद
हर नफ़स रोज़-ए-क़ियामत के सिवा कुछ भी नहीं!

लोग क्यों ज़िक्र-ए-क़यामत से डरा करते हैं?
वो तिरे पर्तव-ए-क़ामत के सिवा कुछ भी नहीं!

इब्तिदा हर्फ़-ए-तमन्ना की बड़ी आफ़त थी
इन्तिहा अश्क-ए-निदामत के सिवा कुछ भी नहीं

कोई यक-रंगी-ए-सद-रंग-ए-ज़माना देखे
देह्र इक जल्वा-ए-वहदत के सिवा कुछ भी नहीं!

रंग-ए-गुल,रंग-ए-शफ़क़,रंग-ए-हिना,रंग-ए-बहार
इक तिरे रंग-ए-शबाहत के सिवा कुछ भी नहीं

सांस लेते हुए डरता हूँ कि यारो! हर सांस
मुझ को इक संग-ए-मलामत के सिवा कुछ भी नहीं

दोस्तो! अर्ज़ जो करता हूँ तो सच करता हूँ
दोस्ती हुस्न-ए-अदावत के सिवा कुछ भी नहीं!

तेरा अफ़्साना-ए-ग़म-हाये-ज़माना "सरवर"
एक फ़र्सूदा रिवायत के सिवा कुछ भी नहीं!