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हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो / ग़ालिब अयाज़
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हुस्न के ज़ेर-ए-बार हो कि न हो
अब ये दिल बे-क़रार हो कि न हो
मर्ग-ए-अम्बोह देख आते हैं
आँख फिर अश्क-बार हो कि न हो
कर्ब-ए-पैहम से हो गया पत्थर
अब ये सीना फ़िगार हो कि न हो
फिर यही रूत हो ऐन मुमकिन है
पर तिरा इंतिज़ार हो कि न हो
शाख़-ए-ज़ैतून के अमीं हैं हम
शहर में इंतिशार हो कि न हो
शेर मेरे संभाल कर रखना
अब ग़ज़ल मुश्क-बार हो कि न हो