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हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है / अनवर जलालपुरी
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हुस्न जब इश्क़ से मन्सूब नहीं होता है
कोई तालिब कोई मतलूब नहीं होता है
अब तो पहली सी वह तहज़ीब की क़दरें न रहीं
अब किसी से कोई मरऊब नहीं होता है
अब गरज़ चारों तरफ पाँव पसारे है खड़ी
अब किसी का कोई महबूब नहीं होता है
कितने ईसा हैं मगर अम्न-व-मुहब्बत के लिये
अब कहीं भी कोई मस्लूब नहीं होता है
पहले खा लेता है वह दिल से लड़ाई में शिकस्त
वरना यूँ ही कोई मजज़ूब नहीं होता है