भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हुस्न फिर फ़ित्नागार है क्या कहिये / मजाज़ लखनवी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 
हुस्न फिर फ़ित्नागार है क्या कहिए ।
दिल की जानिब नज़र है क्या कहिए ।

फिर वही रहगुज़र है क्या कहिए,
ज़िन्दगी राहबर है क्या कहिए ।

हुस्न ख़ुद पर्दादार है क्या कहिए,
ये हमारी नज़र है क्या कहिए ।

आह तो बे-असर थी बरसों से,
नग़्मा भी बे-असर है क्या कहिए ।

हुस्न है अब न हुस्न के जलवे,
अब नज़र ही नज़र है क्या कहिए ।

आज भी है 'मज़ाज़' ख़ाकनशीं,
और नज़र अर्श पर है क्या कहिए ।