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हूँ कतार में / दीनानाथ सुमित्र

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मैं भी अजर-अमर बनने को
कई युगों से हूँ कतार में
 
मस्ती में है आगे वाला
वही पी गया पूर्ण उजाला
बस जहरीला धुआँ निकाला
फेंटी कालिख हरसिंगार में
मैं भी अजर-अमर बनने को
कई युगों से हूँ कतार में
 
माथे पर छप्पर-छौनी है
खाने को सामां-कौनी है
मन मेरा बाबा-मौनी है
डूबी है नैया किनार में
मैं भी अजर-अमर बनने को
कई युगों से हूँ कतार म
 
सरदी-गरमी बरसातों में
तूफानों झंझावातों में
मिला न कुछ भी खैरातों में
मिश्र हो गया शिला-भार में
मैं भी अजर-अमर बनने को
कई युगों से हूँ कतार में
 
पर मन प्राण बसे झरने में
नहीं आस्था है मरने में
क्या जाता प्रयास करने में
अब न ढलेगी जीत, हार में
मैं भी अजर-अमर बनने को
कई युगों से हूँ कतार में