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हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं / राजेश रेड्डी
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हूँ वही लफ़्ज़ मगर और मआनी में हूँ मैं ।
अबके किरदार किसी और कहानी में हूँ मैं ।
जैसे सब होते हैं वैसे ही हुआ हूँ मैं भी,
अब कहाँ अपनी किसी ख़ास निशानी में हूँ मैं ।
ख़ुद को जब देखूँ तो साहिल पे कहीं बैठा मिलूँ,
ख़ुद को जब सोचूँ तो दरिया की रवानी में हूँ मैं ।
ज़िन्दगी! तू कोई दरिया है कि सागर है कोई,
मुझको मालूम तो हो कौन से पानी में हूँ मैं ।
जिस्म तो जा भी चुका उम्र के उस पार मेरा,
फ़िक्र कहती है मगर अब भी जवानी में हूँ मैं ।
आप तो पहले ही मिसरे में उलझ कर रह गए,
मुंतिज़र कब से यहाँ मिना-ए-सानी में हूँ मैं ।
पढ़के अशआर मेरे बारहा कहती है ग़ज़ल,
कितनी महफ़ूज़ तेरी जादू-बयानी में हूँ मैं ।