भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हूक उठी दिल में कुछ ऐसी / महावीर शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

“हूक उठी दिल में कुछ ऐसी”

हूक उठी दिल में कुछ ऐसी , दूर क्षितिज तक चलता जाऊं।।
उच्च शैल आनंद शिखर तक , अविचल होकर बढ़ता जाऊं।।

घनन घनन घन सघन गगन हो, दामिनी चमके दिग्दाहों से
तरल तिमिर ना रोक सकेगा , मुझ को मेरी इन राहों से
  
स्वच्छंद सुमन हों खिले जहां , गीत प्यार के गाता जाऊं।।

 
गरल जलद की झड़ी लगी हो , गूंज रहे हों सुर-श्मशान
चिर-निद्रा का अट्टहास भी , गरज रहा हो प्रलय समान

प्रलयंकारी अंधकार में, बन आलोक बिखरता जाऊं।।

अरुण अधर, नयनों का जादू , विघ्न बने पथ में छल बनके
छीन रहे विश्वास-अडिग को , मन की परवशता सी बन के

बुद्धि-चेतना जागी क्षण में , छल-प्रपंच से बचता जाऊं ।।

रास्ते में देखा तोः

दूर नगर से इक कुटिया में , टूट रहा था जीवन-बंधन
जीर्ण-शीर्ण रोगी था पीड़ित; मिटती सी रेखा सा जीवन

जीवन के मिटते रंगों में , रंग खुशी के भरता जाऊ।।

    
नि:स्वार्थ भाव से सेवा-रत, आनंद-शिखर बन जाता है
जीवन के निर्जन उपवन में , स्वच्छंद सुमन खिल जाता है
      
जहां भूख से विकल दलित हो, दु:ख निवारण करता जाऊं ।।

हूक उठी दिल में कुछ ऐसी, अंधकार में चलता जाऊं।।