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हूणियै रा होरठा (1) / हरीश भादानी
Kavita Kosh से
सूकै अकरै तावड़ै
हाड मांस रा बोल
रगड़यां सांसो सांस
जगै हगड़ता हूणिया
आखर तो खीरां जिसा
चुगतां लागै डांभ
आला लीला बाळ
जगरौ तापै हूणिया
आखर रो सत ऊजळो
आखर रूप अकूत
आखर-चेतौ एक
हिरदै धारै हूणिया
आखर जुड़ बोली बणै
बोली उपजै हेत
हेत जूण रो सार
होठां राखै हूणिया
हेत हियै में ऊपजै
हुवै रगत - सौ लाल
उगटै हुवै हजार
रातौ एक न हूणिया
थूं नीं जाणै हेत री
बारखड़ी रो अर्थ
आखर लिखै अणूत
अबखौ लागै हूणिया
थै नीं देखी मावड़ी
थै नीं देख्यौ बाप
हेलाहेल मचा’र
थूक बिलावै हूणिया
हर तक गिटले हेत री
जीमै मसळ पिछाण
लेवै नहीं डकार
कांसारोणी हूणिया