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हूबहू / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी
Kavita Kosh से
पुराना जैसा
हूबहू
वैसा ही दिखता है
गणतन्त्र का नया शासक
वैसे ही मुस्कराता है कुटिल मुस्कान
वैसे ही करता है अभिनय
वही तरिक़े से
उसी शैली में
देता है मूँछ पर ताव
और बोलता है झूठ
ठीक वैसा ही है उसका मिजाज़
वैसी ही है मुख–मुद्रा
वैसा ही है भाव-मण्डल चेहरे में
जात्रा में, मेले में
ठीक वैसे ही निकलती है उसकी सवारी
छोटा आयतन का सड़क का घनत्व
सिकुड़ता है एकाएक फ़ुटपाथ में
वैसे ही निस्पृह खड़ा होता है आम आदमी
और निर्विघ्न सम्पन्न होती है
‘राजकीय’ सवारी!
कैसे हो सकता है गणतन्त्र में भी
हूबहू वैसा ही सब?
दुविधा में है सड़क पर चल रहा आदमी
और याद कर रहा है
बख्तरबन्द गाड़ी के पहरे को चुनौती देकर
चौक में
किसी महाराजा के पुतले को तोड़ा हुआ दिन।