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हृदय-वेदना - 1 / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

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कहाँ वह सरस वसंत रहा,
जो देता था भारत-भू में रस का सोत बहा।
पलाशों की बिलोक लाली
लहू आँखों में है आता;
देख उसमें का कालापन
दोष अपना है खल जाता।
दिल दहलाता है लहू से दाड़िम-सुमन नहा।
अलि-अवलि का मतवालापन
मलिन कर देता है मानस;
याद वह बहु मद है होता,
सरस में रहा न जिससे रस।
सुन विधवा-विलाप कोकिल-रव जाता है न सहा।
मंद चल-चल कर मलय-पवन
मंदता है यह बतलाती;
जो विपुल कुल-बालाओं पर
बलाएँ नित नव है लाती।
है मधूक-दल विकल बनाता हो रुधिराम महा।
बहुलता नाना कल-छल की
विदित करती है कुसुमावलि;
कलह है किसलय-सम उपचित
हुई जिस पर विरुदावलि बलि।
कब मुँह खोल जाति कलकों को कलिका ने न कहा।
परम असरस फल-पुंज-जनक
सेमलों के कमनीय सुमन
देश की नीरसता बतला
बनाते हैं बहु आकुल मन।
चित-अनुताप-अधम तम ने है उमग मयंक गहा।