हृदय-वेदना / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
हो रहा है गो-धान विध्वंस,
कलपते हैं पय को कुल-लाल;
किसलिए गया सर्वथा भूल
गौरवित गोकुल को गोपाल!
भर गयी दानवता सब ओर,
बने मन मद-वारिधि के मीन
मनुजता-श्रुति को कर रस-सिक्त
बजी मुरली मुरलीधार की न।
लोक लोलुपता में है लीन,
हो गया दूना दुख-संदोह;
बन गयी अवनी महा मलीन,
तजा क्यों मनमोहन ने मोह।
हो रहा है पल-पल पवि-पात,
बन गया काल-बदन विकराल;
कलंकित हुए सकल अकलंक,
कहाँ है आज कंस का काल।
हुआ जन-जन-जीवन रस-हीन,
सरसता नहीं श्याम अवदात;
विरस हो चली कामना-बेलि,
वारि बरसा कब वारिद गात।
कर रहा है कलि-काली-नाग
गरलमय रुचि रवि-तनया-धार;
कर सका दूर नहीं दुख-द्वंद्व
लोक-अभिनंदन नंदकुमार।
गिरे हैं दुख-जल-मूसल-धार,
घिरे परिताप-घन-जलद-जाल;
न अब तक सदय भाव गिरिराज
कर सका धारण गिरिधार लाल!
कराता है पल-पल अपकार
परम अपकारी का अहमेव;
हुई क्यों दया दयामय की न,
हुआ क्यों द्रवित नहीं व्रज-देव।
महाभव-बंधान सका न टूट,
हो गयी मोहमयी मति कुंद;
गया है भूल मुक्ति का मंत्र,
मुक्त करता क्यों नहीं मुकुंद।
तजी क्यों विपद-विमोचन-बान,
नहीं खुलते लोचन-अरविंद;
हुआ खल-वृंद बहु प्रबल आज,
देश को भूला क्यों गोविंद।