हृदय में प्रेम का दिन / जीवनानंद दास / चित्रप्रिया गांगुली
हृदय में प्रेम के दिन कब शेष होते हैं
केवल उनकी चिता रह जाती है
हम यह नहीं जानते — लगता है जीवन
जो है बासमती चावल जैसा
रूपवती धान है वह — रूप, प्रेम यही सोचूँ
छिलके जैसा नष्ट और मलिन
एक दिन उन सबकी सारहीनता पकड़ी जाएगी
जब हरा अन्धकार, नर्म रात्रि का देश
नदी के पानी की गन्ध
किसी नवागंतुका का चेहरा लेकर आता प्रतीत होता है
किसी दिन पृथ्वी पर प्रेम का आह्वान
इतनी गहराई से पाया है क्या ?
प्रेम है नक्षत्र और नक्षत्र का गान
प्राण व्याकुल है रात की निर्जनता से
गाढ़ी नील अमावस्या से
वह चला जाता है आकाश के दूर नक्षत्र की लाल नील शिखा की खोज में
मेरा यह प्राण अन्धेरी रात है
और तुम स्वाति की तरह
तुम वहीं रूप की विचित्र बाती ले आई
प्रेम की धूल में काँटे हैं
जहाँ गहरी सिहरन पृथ्वी के शून्य में
मृत होकर पड़ी थी
तुम सखि डूब जाओगी
लोमहर्षित क्षण भर में
जाते हुए सूर्य की मलिनता में
जानता हूँ मैं, प्रेम फिर भी प्रेम है
स्वप्न लेकर जिएगा वह
वह जानता है जीना
मूल बांग्ला से अनुवाद : चित्रप्रिया गांगुली