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हृदय से पुकारूँगा / विकास पाण्डेय

एकबार फिर तुम्हें
हृदय से पुकारूँगा।
अहंकार की छत से,
विनम्रता कि सीढियों से
स्वयं को उतारूँगा।

जीवन के पन्नों पर,
वर्तनियों की त्रुटियाँ
सजग हो सुधारूँगा।
आशाओं के आकाश तले
अनंत सम्भावनाओं की
बाहें पसारूँगा।

स्वागत करूँगा मैं,
पश्चाताप-अश्रुओं से
तुम्हारे पग पखारूँगा।
पूर्णमासी की निशा में,
चंद्रमुख का स्मित मधुर,
अपलक निहारूँगा।

एकबार फिर तुम्हें
हृदय से पुकारूँगा।