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हेत खेत माँहि खोदि खाईं सुद्ध स्वारथ की / जगन्नाथदास ’रत्नाकर’

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हेत खेत माँहि खोदि खाईं सुद्ध स्वारथ की,
प्रेम-तृन गोपिं राख्यौ तापै गमनौ नहीं ।
करनी प्रतीति-काज करनी बनावट की,
राखी ताति हेरि हियँ हौंसनि सनौ नहीं ॥
घात में लगे हैं ये बिसासी ब्रजवासी सबै,
इनके अनोखै छल-छंदनि छनौ नहीं ।
बारनि कितेक तुम्हें बारनि कितेक करैं,
बारन उबारन ह्वै बारन बनौ नहीं ॥14॥