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हेमन्त ऋतु / प्रेम प्रगास / धरनीदास

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चौपाई:- ज्ञानमती धनि को छव रीता। कहों सुनो अब परम पुनीता॥
हेम समय परिहरो अनारी। सुनत वचन धरु हृदय विदारी॥
जैसे सांप केंचुली डारी। रूप न रेख पूर्व अनुहारी॥
भूपति होउ कि होउ भिखारी।...
मन वच कर्म वाहि चित चाऊ। अहनिशि विधि करजोरि सुनाऊ॥
हे प्रभु अव पियतम जो आऊ। मोहि दासीसों दरश कराऊ॥

विश्राम:-

अब मोहि नेकु न भावई, मातु पिता को राज।
सेवों चरन सनेहिया, जासों युग युग काज॥199॥

अरिल:-

कामिनि धरि पिय पंथ, सुरति चित लाइया।
मातु पिता को राज, सकल विसराइया॥
अहिनिशि नावति शीश, सो ईश मनावही।
ज्ञानमती सनमानि, कुंअर जो आवही॥

कुंडलिया:-

हमहि कुलच्छनि कामिनी, करनी कछु न हमार।
योगी मिलै तो जग वसै, नातो जगत उजार॥
नातो जगत उजार, जार तन छार करोंगी।
विना कंतके दरश, रैन दिन कैस भरोंसी॥
छठी रात जिन भाग करी, छठ वरत लच्छनी।
वहि चित करि अनुराग, धनी हमही कुलच्छनी॥

सवैया:-

राजकुमार न पाय दिदार, विचार हिये पछताती।
को अपराध कियो विधि जातन, भोग समय भा रोग कि छाती॥
चित चाव करो पछताव घनी, धरनी जो भए सो कही नहि जाती॥
ज्ञानमती पलही पल टारत, पंथ निहारत है दिनराती॥

सोरठा:-

हमने देखो नारि, परम प्रीति वर उरधरे।
धरनी धनि सकुमारि, विरह व्यथा व्याकुल भई॥