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हेली! हेलो पड़याँ / ताऊ शेखावाटी
Kavita Kosh से
खिलती कळियाँ गळियाँ सौरम, फ़ूट्याँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
मत आँचल री आग अँवेरे
ढलसी जोबन देर-सबेरै
झूठी उलट सुमरणी फ़ेरै
पकतो आम डाळ एक दिन, टूटयाँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
कंचन काया का कुचमादण!
क्युँ हो री है यूँ उनमादन
हठ मत पकड़ हठीली बादण
लख जतन कर एक दिन लंका लुट्याँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
ढाळ जठीणै ढळसी पांणी
आकळ बाकळ मत हो स्याणी!
डाट्यो भँवर डटै कद ताणी
फ़ूल्योड़ा फ़ूलड़ा जग ‘ताऊ’ चूंटयाँ सरसी ए।
हेली! हेलो पड़याँ
हवेली छूट्याँ सरसी ए॥
शब्दार्थ हेली=हवेली=काया, आत्मा का घर हेलो=आवाज देना, जब बुलावा आएगा छूट्याँ सरसी ए=छोड़ना ही पड़ेगा, बिना छोड़े नही बनेगा