भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हे काले-काले बादल / सुभद्राकुमारी चौहान
Kavita Kosh से
हे काले-काले बादल, ठहरो, तुम बरस न जाना।
मेरी दुखिया आँखों से, देखो मत होड़ लगाना॥
तुम अभी-अभी आये हो, यह पल-पल बरस रही हैं।
तुम चपला के सँग खुश हो, यह व्याकुल तरस रही हैं॥
तुम गरज-गरज कर अपनी, मादकता क्यों भरते हो?
इस विधुर हृदय को मेरे, नाहक पीड़ित करते हो॥
मैं उन्हें खोजती फिरती, पागल-सी व्याकुल होती।
गिर जाते इन आँखों से, जाने कितने ही मोती॥