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हे गुणवती प्रिये, देवदारु वृक्षों के / कालिदास

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भित्‍वा सद्य: किसलयपुटान्‍देवदारूद्रुमाणां
     ये तत्‍क्षीरस्‍त्रुतिसुरभयो दक्षिणेन प्रवृत्‍ता:।
आलिङ्ग्यन्‍ते गुणवति! मया ते तुषाराद्रिवाता:
     पूर्वं स्‍पष्‍टं यदि किल भवेदङ्मेभिस्‍तवेति।।

हे गुणवती प्रिये, देवदारु वृक्षों के मुँदे
पल्‍लवों को खोलती हुई, और उनके फुटाव
से बहते हुए क्षीर-निर्यास की सुगन्धि लेकर
चलती हुई, हिमाचल की जो हवाएँ दक्खिन
की ओर से आती हैं, मैं यह समझकर
उनका आलिंगन करता रहता हूँ कि कदाचित
वे पहले तुम्‍हारे अंगों का स्‍पर्श करके आई
हों।