भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हे जी हे जी बदन म्हं गहरी बेदन छाई / मुकेश यादव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हे जी हे जी बदन म्हं गहरी बेदन छाई
आधी जिन्दगी बीत गई, मेरै ईब समझ म्हं आई

देश नै आजाद बतावैं, या जिन्दगी मेरी गुलाम क्यूं
दसवीं तक पहल नम्बर थी, कटग्या मेरा नाम क्यूं
कुरड़ी का धन कहैं छोरी नै, यू जीणा मेरा हराम क्यूं-क्यूं
गोबर गेरुं धार काढ़ लूं, फेर पाणी के ल्यावूं मैं
झाडू पोचा करकै नै, रोटी टूका निपटाऊं मैं
दाती पल्ली ठाकै नै, फेर न्यार नै जाऊं मैं-मैं
मेरी मेहनत का कोए खात्ता ना, या कित जा मेरी कमाई

पढ़-लिखकै के काढ़गी, तू सूहर सीख ले घर का हे
सारी जिन्दगी कहण पुगाणा हो सै, ब्याहे बर का हे
जो लिख राख्या वो मिल ज्यागा, ताज तेरा वो सिर का हे-हे
टूम-ठेकरी दान-दहेज दे, सासरै खंदावण लागे

डोळी अर्थी की एक देहळ हो, चलते नै समझावण लागे
पतिव्रता का धर्म निभाइये, खोलकै बतावण लागे-लागे
हे उड़ै किसा मेरा होवै था स्वागत, घूंघट म्हं लिपटाई

सासरे म्हं जाकै नै, बड-ई मुश्किल पैर जमाणे हो
बड़े-छोटे घर कुणवे के, सारे फर्ज पुगाणे हो
दान-दहेज और लेण-देण के , सौ-सौ ताने खाणे हो-हो
ताना-बाना इसा कसूता, समझ मेरी ना आई हे
किसै की भाभी किसै की काकी, किसै की बणगी ताई हे
पहचान मेरी तै गुम होगी, कितै मैं ना ढूंढी पाई हे-हे
अड़ै जात-गोत और नाम बदल दें, कहैं मरदां गेल लुगाई

कोथली संदारे देकै, अपणा फर्ज पुगाण लागे
दूसर-तीसर छुछक देकै, स्यान सा जताण लागे
भात तक आते-आते, आंख-सी दिखाणा लागे-लागे
छोरी धरती देती ना, ये कर रे रोज मुनादी हे
कई करोड़ की धरती थी, भाईयां कै नाम करा दी हे
उस दिन भी दोनूवां ना मिलकै, एक-ऐ तीळ सिमादी हे-हे
कित-कित मारैं रोज रोळ ये, ‘मुकेश’ करै कविताई