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हे तीर्थड्कर / रामगोपाल 'रुद्र'

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चहुँ ओर तिमिर जब तैर रहा, इस दुर्दिन में, नभ पर, भू पर,
तुम फिर उतरो, हे तीर्थङ्‍कर! फिर देह धरो, हे ज्योतिर्धर!

जीवन की चन्‍दनबाड़ी में व्यालों का ज़ोर बढ़ा देखो,
मानस की कुसुमित आँखों में रागों का शूल गड़ा देखो;
हिंसालु घृणा-वन में दंशित जग के युग-होंठ हुए नीले,
दाँतों का ज़हर चढ़ा सिर पर, चित-खेत अचेत पड़ा देखो;

दावानल बढ़ता आता है, इन्‍धन बनते जाते तरुवर!
लुकवारी भाँज रहे, लू बन, शीतल परिमल-तल भी तपकर।

विज्ञान-बलोन्‍मद निर्झरणी शिखरों के शेखर ठुकराती
अज्ञान-धरातल पर उतरी, हरियाली पर आफत ढाती;
कितनी ऋजुकूलाएँ डूबीं, कितने ही जृम्भिक ग्राम बहे
किस महाप्रलय को लक्ष्य किये यह ध्वंसधुनी बढ़ती जाती?

प्लावित पीड़त संसार पुन: पथ जोह रहा, हे भूपकुँवर!
कब भागीरथी बनाते हो, धरकर तुम यह धारा दुर्धर!

अब की दुर्गति अब क्या कहिए! संयम सम छोड़ बना यम है,
दर्शन दिग्भ्रान्‍त प्रदर्शन में, प्रवचन में तर्कों का भ्रम है;
गौओं पर दाँत लगा नाहर मौलिक अधिकार विचार रहे!
संचय तप का साफल्य बना! ज्ञानी हैं वे जिनमें हम है!

स्वार्थ ही नीति, छल राजनीति, है प्रेय-प्राप्ति ही श्रेयस्कर;
कृष्णा-भू टेर रही कब से, अब देर करो न, सुदर्शनकर!