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हे तुलसी! / रामगोपाल 'रुद्र'
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लगे जिसके, तुम हरि से लगे, मुझे भी वह ठोकर लगती!
शब्द का लगता ऐसा घाव,
टूट जाते तृष्णा के पाँव,
कुमति की गति होती लाचार,
हृदय हो जाता हरि का गाँव;
मोह के झूठे बंधन तोड़, चेतना मुक्त हुई जगती!
कभी होता ऐसा संयोग
कि मैं भी पाता प्रीति-वियोग;
रीति की यमुना हो कर पार,
धन्य होता मेरा भी योग;
चितौनी ही ला देती चेत, चकित चितवन चित् से टँगती!