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हे देवी! / प्रमोद धिताल / सरिता तिवारी

हे देवी!
दिखा दो
इस दैत्यों के साम्राज्य में
तुम्हारा विराट काली रूप

हाथों में चमचमाता त्रिशुल
क्रोध से फफकती हुई आँखें
ख़ून से सनी हुई जीभ
घुटनों तक पहुँची खोपडि़याँ की माल
भस्म से पुता हुआ अर्धनग्न जान!
बचपन से ही देखी हूँ
दशहरा घर में रखी हुई तुम्हारी मूर्ति
तुम्हारे चित्र, पोस्टर, तरह–तरह की कलाकृति
और बाघ के ऊपर विराजित तुम्हारी ब्राण्डेड तस्वीर
जहाँ कहीं देखती हूँ अब भी
फुटपाथ में
पूजा घरों में
या आस्था के नाम–अनाम दुकानों में

परन्तु हे दुर्गे!
मुझे देखना है
तुम्हारा हुंकार करता हुआ रौद्र रूप!

जब निशाने पे रखते थे असुर देवताओं का राज
और डगमगा जाता था स्वर्ग का सिंहासन
फिर तुम्हारी अर्चना करते थे कातर देवता
और तुम बन जाती थी उनकी सुरक्षा के लिए ढाल

जिसके लिए लड़ते हुए भी
आखि़र साबित की थी तुमने
अपराजेय वीरता
पर हे महाशक्ति!
तुम्हारे महिषासुर वध करके लौटने के बाद भी
घूम रही है पृथ्वी
तुम्हारे खड़े होते रहने से
कहाँ ठहर जाती है घड़ी?

युगों युग
कल्पों कल्प
किस निद्रा में हो देवी?

पिघलता हुआ तामा जैसा रूप लेकर
कब खड़ी होगी तुम?
देखना है मुझे
दैत्यों का संहार करती हुई
तुम्हारा हीरोइक अन्दाज़!

मालूम है?
तुम जब सो रही थी
उन्होंने तुम्हें चुड़ैल बनाया
और बलात खिलाये इन्सानी मल
बलज़फ्ती बन्द करके कोठरी में
कर दिया ‘वेश्या’ क़रार
और नैतिकता की सफ़ेदपोश पहनकर
लिखे धर्म की नाम में पाप के मन्त्र

तुम्हारे सो जाने के बाद
अवचेतन में ही रटायी गई है तुम्हें
सहनशीलता की अद्वैत वर्णमाला
और बनाया गया है तुम्हारी चेतना को विकलांग

उसके बाद ही शुरूआत की गई
तुम्हारा निरपेक्ष सौन्दर्य पूजन
तुम्हारी आँख और होंठों का विज्ञापन
तुम्हारी भंगिमा और सेक्स अपिल की चर्चा
और ख़त्म हुआ है इस चराचर जगत में
तुम्हारी अपार शक्ति का भाष्य।

इस समय
तुम्हारी योनी में कूदकर
सारी लज्जा ने की है ख़ुदकुशी
और स्थापित हुई है
केवल पाँच इंच की ‘बर्बर’ वस्तु की सत्ता
जहाँ अपनी ही बिटिया के ऊपर गिरकर तृप्त होता पिता
हरे–हरे दाँत दिखाकर करता रहता है
इस गन्दी सत्ता की पहरेदारी

हद हुआ! अत्याचार हुआ!!
हे महा मातृका!
द्वार–द्वार, गाँव शहर
न रहकर कही रिक्त स्थान
बना हुआ है दुर्गन्धों का साम्राज्य

अब तो जागो
इस कठोर निद्रा से
दिखा दो तुम्हारी कोटी–कोटी हाथों की शक्ति
दिखा दो तुम्हारा वह दुर्लभ रूप
तुम्हारी क्रोध की हुण्डरी से
आए भयंकर उलट–पलट
उठे सारे हिमालय लाँघने वाले ज्वार समुद्र में
या टूटे सभी महासागर
छिद्र-छिद्र बनकर छलनी हो जाए धरती
बल्कि ख़त्म हो जाए सभ्यता
और ख़ाली हो जाए पृथ्वी

नहीं चाहिए
युद्धबन्दी जैसा
पराजय का बिल्ला टँगा हुआ
आत्महन्ता जि़न्दगी
मुझे लड़ना है तुम्हारे साथ ही खड़ा होकर
इतिहास का अन्तिम युद्ध
वल्कि वरण करना है
शहाादत!