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हे नियति / उषा उपाध्याय
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					हे नियति !
तूने विषकन्या की छूअन बन कर
चूम लिया कभी
दिल को मेरे,
कभी
धृतराष्ट्र के कठोर आलिंगन में
भर लिया 
तूने मुझे ।
निर्वासन के दिनों में
तूने वरदान भी दिया 
तो दमयंती के कर-कमलों का
और 
प्यार के महकते लम्हों में
तू कौंध गई है
पुरुरवा की बिजली बनकर ।
पर हे नियती !
तेरी लाख-लाख कोशिशों कें बावजूद
मैं रही हूँ
अजेय अडिग ।
तेरे हर पदाघात से
मैं खिल उठी हूँ
अशोक के फूलों  की तरह ;
और अगर कभी
मेरे मुँह से लफ़्ज़ भी निकले हैं
तो सिर्फ इतने ही कि
अय जिन्दगी !
तू मुझे मिली है
बहती नदी
और उमड़ते समुद्र की तरह
धुआँधार 
बस धुआँधार ।
 
	
	

