हे नीलकण्ठ! आकर देखो / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
 मानस में खिलते कमल
चिरन्तन चिन्तन के
हैं किसने रचे
धरा-अम्बर-तारे-सागर? 
 किसने वन-उपवन रचे
 रचा श्री चक्रवाल, 
 हैं किसने रचे
 पुष्प दल गन्धों के निर्झर? 
तैरती धार पर 
सहज देखती मैं अम्बर, 
व्यापक असीम
अनवद्य अखण्ड अपरिमित को। 
 तब मेरे चंचल
 युगल नयन हो निर्निमेष
 हो जाते क्षणभर
 अचल अचंचल विस्मित हो। 
हिमगिरि के पावन
षैल-श्रंग उत्तुंग-शिखर, 
घाटियाँ विविध रंगों के 
फूलों से भरकर, 
 विखरा दीं भूतल पर
 अनन्त सुषमा अमोल, 
 कण-कण में किसने
 जगा चेतना दी अक्षर। 
वह कौन शान्ति का
महाकोश निःसीम अतुल? 
जीवन प्रवाह जिसने
अखण्ड अविराम किये। 
 
 प्राणों की धवल
 रस्मियों का कर विस्तारण, 
 है कण-कण तृण-तृण
 वसुधा का छविधाम किये। 
वह और नहीं कोई
तुम ही हो निर्विकार! 
इस निखिल सृष्टि का
कण-कण तुमसे प्राणवन्त, 
 तुम हो अनन्त
 वैधिध्य पूर्ण विस्तृत अखण्ड
 पा सका धरा पर
 कौन तुम्हारा आदि-अनन्त। 
मैंने देखे
पीड़ाओं के निर्झर अपार, 
मैं व्यथा-सिन्धु की
लहरें गिनती रहती हूँ, 
 हे करूणासागर! 
 करूणा के इस सागर में
 मैं लिये तुम्हारी टेक
 सभी कुछ सहती हूँ। 
मैं नमन निवेदित
करती हूँ सर्वत्र-सतत-
हे सकल सृष्टि आधार! तुम्हारा अभिनन्दन, 
 मैं मीन चंचला हूँ
 जीवन की परमप्रिया
 वन्दन करती हूँ
 हे जीवन के जीवन धन! 
हे नीलकण्ठ! 
आकर देखो इस वसुधा पर, 
विष के घट नहीं, 
गरजते उन्मद सागर हैं, 
 
 अब कैसे पीकर गरल, 
 बचाओगे जग को, 
 विष वाडवाग्नि से ज्वलित
 पूर्ण भव-सागर है। 
हे नीलकण्ठ! 
बहु कण्ठ तुम्हें रचने होंगे
अन्यथा जगत की
पूरनमासी दूर नहीं, 
 विष व्याप रहा
 तन में मन में जड़-जंगल में
 भावना मनुज की
 पवन है भरपूर नहीं। 
जब एक धरांचल में है
पोषित मनुज सृष्टि, 
फिर भी हो रही
मनुज खण्डित आखिर क्यों? 
 
 उन्नत होता सद्भाव न, 
 लेकिन वैमनस्य-
 हो रहा निरन्तर ही 
 उत्कर्षित आखिर क्यों? 
आखिर क्यों
घटता गया निरन्तर प्रेम यहाँ? 
हो उठे सजल
क्यों युगल नयन बांधवता के? 
 क्यों मूचि्र्छत-सी
 हो गयी मनुजता की लतिका? 
 विषदन्त प्रखर क्यों हुए
 घोर दानवता के? 
आखिर कब तक 
यह और जलेगी मनुज सृष्टि-
आपसी द्वेष की
प्रलयकारिणी ज्वाला में? 
 क्या नहीं स्नेह का
 निर्झर फूटेगा उर में 
 क्या पड़ा रहेगा
 मन मद की मधुशाला में? 
फिर उत्स प्रेम का बनो
जगत हित नीलकण्ठ! 
कण-कण आप्लावित
कर दो अमरत-धारा से, 
 फिर ज्योति रश्मियाँ
 बिखरा दो मानवता की, 
 हो मुक्त धरित्री
 दूषण की कटुकारा से। 
हों खण्डित अन्तस के
दुःखद आवरण सकल, 
जिनके कारण हो सका न अब तक निज दर्शन, 
 होकर अंजान स्वयं से
 किसको समझे नर? 
 अज्ञान पाश में
 हो निबद्ध करता नर्तन। 
हे देव! असंख्यक
बन्धन तोड़ो जीवन के, 
जोड़ो निज से
निजता का बोध कराओ तुम। 
 बिखरा-बिखरा है
 जीवन होकर दिशा हीन
 पावन प्रेरणा जगा
 सत्पथ पर लाओ तुम। 
हे देव! न जब तक
कृपा तुम्हारी बरसेगी, 
तरसेगी तब तक सृष्टि
शान्ति के अंचल को, 
 
 जीवन की धारा
 समुत्कर्षिता बन कैसे
 पायेगी अपनी
 फिर मनोज्ञ छवि उज्ज्वल को? 
हे देव! दृश्य, दृष्टा
सब हैं पर दृष्टि नहीं, 
जो है वह
दिन-दिन घटती-घटती जाती है, 
 
 वह दिव्य चेतना
 कण-कण में करती निवास, 
 पर जगड्वाल में
 फँसी हुई अकुलाती है। 
हे देव! जगत की
ज्वालाएँ शीतल कर दो, 
प्राणों का भीषण दाह
मिटा दो क्षणभर में, 
 अन्तस में पहुँचे 
 दृष्टि परम पावन होकर
 सोयी-सी है चेतना
 जगा दो अन्तर में। 
जग के हित में
तन लगा रहे, पर मन मेरा-
अक्षर अनन्त के
सतत ध्यान में लीन रहे, 
 बस एक पथ है
 लक्ष्य एक है जीवन का
 प्रभु! 'सोहमस्मि' का
 भाव सदैव अदीन रहे। 
जब तक मुझको
अपना ही होता ज्ञान नहीं, 
तब तक क्या कोई
ज्ञान और हो पायेगा? 
 हो सकता है
 तो बस केवल अभिमान दम्भ-
 इससे आगे
 दुर्बल विवेक क्या जायेगा? 
हे देव! चित्त की
अस्थिरता कर घात रही, 
पल भर न ठहरने देती है
मन को मेरे, 
 आकुल-व्याकुल-सा
 हृदय प्रकम्पित है रहता
 अब उजड़ गये हैं
 सहज शान्ति के शुचि डेरे। 
जीवन विहीन 
हो रही नित्य जीवन धरती
क्या सजला फिर-
निर्जला-दंश को भोगेगी? 
 यह असहनीय
 घटनाक्रम कब तक देखोगे? 
 क्या शक्ति तुम्हारी
 इसे न बढ़कर रोकेगी? 
आखिर यह कैसा
खेल रचाया है तुमने
कुछ भी तो अब-तक
नहीं समझ में आया है, 
 मैं तो माया से बद्ध
 निपट अज्ञानी हूँ
 छू सकी न अब तक
 मुझे धर्म की छाया है। 
हर तरफ ध्वंस विध्वंस
कर रहा है ताण्डव
लग चुकी आग
मानवता के अरमानों में, 
 
 आखिर हो कितना
 और पतन का षंखनाद? 
 आखिर कब आर्तपुकार
 पड़ेगी कानों में? 
हे देव! रूकेगा
आखिर कब तक यह पतझर? 
कब आयेगा मधुमास
शान्ति हर्षित होगी? 
 कब मानवता की
 कोयल गायेगी सुख से? 
 कब धरती माता की
 आत्मा पुलकित होगी? 
कब मनुज-धर्म का
अम्बर होगा धूम्र हीन
कब सहज समन्वय
के तारक मुस्कायेंगे? 
 कब शान्ति निशापति
 निश्कलंक छवि पायेंगे? 
 कब निर्ममलता
 विुरस प्रपात बरसायेंगे? 
क्या जीवन की
धाराएँ होंगी फिर पावन? 
क्या लौट सकेंगे
मेरे बीते दिन फिर से? 
 उज्ज्वल विहार होगा
 क्या फिर से जल-विहार? 
 क्या आयेंगे स्वर लौट
 मधुर अनगिन फिर से? 
मैं आखिर कब तक
राह निहारूँ खारों में? 
उत्तप्त प्राण हैं टेर रहे
मझधारों में, 
 
 हे देव! दया के सागर
 अब तो आ जाओ, 
 मैं घिरी हुई हूँ
 युग के कठिन प्रहारों में। 
मैंने देखे
अवतार तुम्हारे हैं अनेक, 
श्रद्धा की धारा
बहती है अब तक अखण्ड, 
 तुमने जीवन-पथ
 किया निरापद है सदैव
 देखो तो फिर हैं 
 उभर रहे संकट प्रचण्ड। 
सबके प्रति सब में 
जाग सके करूणा अनन्त, 
ईर्ष्या हो मूलोच्छिन्न 
एक कामना यही, 
 सद्भाव सहजता को 
 पा जाये जीवन को
 खिलखिला उठे
 जलजावलि-सी यह महामही।
	
	